"पीड़ा"
"पंखुड़ी
कल से काम
पे मत आना।
"
"क्यों दीदी
? मेरा काम आपको
अच्छा नही लगा
?।क्या मुझसे कोई गलती
हुई ?"
“नहीं रे..तुम्हारा
काम अच्छा है
..झाड़ू पोछा भी
बहुत रगड़ कर
करती हो और
बर्तन भी अच्छे
से साफ करती
हो ।
"तो ...दीदी ..." पंखुड़ी
सवालभरी नजरो से
देख रही थी
।
"कल से सोसायटी
में किसी
भी कामवाली को नहीं
बुलाया जाएगा.. कल से
लोकडाउन.. "
लॉकडाउन शब्द पंखुड़ी के लिए समझ से बाहर था।उसकी आठ साल की बेटी उसके बगल में खड़ी खड़ी मुंह से अपने फटे हुए फ्रॉक को चबा रही थी।
लॉकडाउन शब्द पंखुड़ी के लिए समझ से बाहर था।उसकी आठ साल की बेटी उसके बगल में खड़ी खड़ी मुंह से अपने फटे हुए फ्रॉक को चबा रही थी।
"बुद्धू
! इतनी बड़ी हो
गई है पर
कुछ अकल ही
नहीं की बड़े
लोगो के सामने
कैसे खड़े होते
है .." ऐसा कहकर
उसको पीट दिया। शायद
अपने जैसे अनपढ़
लोगों के ऐसे
बेहूदा व्यवहार को ये
लोग लोकडाउन कहते
होंगे ये सोच
कर।
पंखुड़ी को काम
छूट गया इस
बात के अफ़सोस
से ज्यादा कल
घर का चूल्हा
कैसे जलेगा उस
बात की चिंता
ज्यादा थी। उसका
पति जीआईडीसी में
मजदूरी करता था
और पंखुड़ी पास
की सोसायटी में
लोगों के घर
का काम करती
थी।
उसकी आंख में
पानी आ गया
जब सेठानी ने
उसे बताया की
कल से बाजार,
उद्योग और व्यवसाय
सभी बंद होने
वाले है।
" रुको
! तुम्हारे काम के
पैसे तो लेती
जाओ .." और वह
क्षण भर रुक
गई।
" ये लो तुम्हारे
पैसे... और यह
थोड़े से ज्यादा...
अगले महीने..जब
तुम काम पर
वापस आओगी तब उसमे
से इसे
काट दूंगी। " सेठानी
ने हिसाब समजाते
हुए कहा।
"और देखो ... तुम्हारे घरवाले का
काम बंद हो
जायेगा , तो इस
बैग को ले
लो..इसमें एक महीने
के लिए जितना
हो सके उतने
किराने का सामान
है ..." कहकर
सेठानी ने
जो थेला पहले
ही तैयार कर
लिया था वह
उसे दिया और
उसे सलाह भी
दी ।
"जब तक यह
सब चल रहा
है तब तक
घर पर रहें
... अपना मुंह ढक
कर रखें। पैसे
या काम के
लालच में बाहर
न जाएं ... " इतनी
सारी सलाह के
साथ उसे अलविदा
कह दिया ...
मन्नू तो कब
से झोपड़ी में
आ गया था
...वह निराशा
में अपना मुंह
लटका कर पंखुड़ी के आने
का इंतजार कर
रहा था ... और
उसने पंखुड़ी को
आते देखा ...
पहले से ही
सामान बांधकर वह
पंखुड़ी की रह
देख रहा था।
"यह सब क्या
है?" पंखुड़ी ने पूछा।
"शाम को सब
जाने वाले हैं ... तो हम
भी चलते हैं ..."
"कहा पे?"
"अपने गाँव.."
"नहीं,
नहीं, हमारे पास तो सेठानी
ने मुझे ये
सब दिया है
उससे गुजरा हो
जायेगा.. " उसने किराने
का सामान और नकद
मन्नू को दिखाते
हुए कहा।
“और सेठानी कह रही
थी की हमें
घर से बाहर
निकलना नहीं है,
हम घर बैठे खा
सके उतना तो
उन्होंने दिया ही
है। "
मन्नू ने
पंखुड़ी की बात
मानी और झोंपड़ी
में ही रहने
का फैसला किया।
एक-दो दिनों
में, मकना को
सरकारी किराना और सेवा-उन्मुख संगठनों से
मदद मिली। कड़ी
धुप ,ठंडी और
बारिश में भी
मजदूरी कर रहे
मन्नू और पंखुड़ी
को इतना आराम
मिला की जैसे
किसी भी जनम
में ना मिला
हो !! खाने पीने
की भी चिंता
नहीं थी। उनके
लिए तो ये
सब स्वर्ग जैसा
था।
दस या पंद्रह
दिन ऐसे ही
बीत गए जिसका
इस दम्पति को
एहसास ही नहीं
हुआ।
लेकिन एक दिन
मन्नू खबर लाया की
सब अपने अपने
गाँव को जाने
की कोशिशों में
लगे है।
"फिर
... हम भी चलते
है ।"
लेकिन पंखुड़ी ने साफ साफ
मना कर दिया..
और एक दिन
नशे की हालत
में उसने पंखुड़ी
पर हाथ भी
उठाया ..लेकिन पंखुड़ी दृढ़
थी ..!!
धीरे-धीरे, बस्ती से जिसे जो मिला उसी से जाने लगा.. और जिसे कुछ भी नहीं मिला वह पैदल चल दिए।
धीरे-धीरे, बस्ती से जिसे जो मिला उसी से जाने लगा.. और जिसे कुछ भी नहीं मिला वह पैदल चल दिए।
मन्नू ने कुछ
दिन तो निकाल
दिए पर फिर
से गाँव जाने
के लिए जिद
करनी शुरू कर
दी।
बचा-कुचा किराने
का सामान साइकिल
के पीछे बांध
कर रास्ते में
थोड़ा रुक रुक कर
गाँव चले जायेंगे
ऐसा सोचकर उसने
पंखुड़ी को समजाने
की कोशिश की।
“लेकिन सेठानी के पैसे..नहीं, कर्ज.." उसको
खटकने लगा। उस पर
कितना विश्वास करके
सेठानी ने उसे
बहोत सारा सामान और पैसे
दिए थे उसे
वह कर्ज डसने
लगा।
उसने मन्नू को बहोत समझाया लेकिन वो नहीं माना।
उसने मन्नू को बहोत समझाया लेकिन वो नहीं माना।
"ये लोग कितने
दयालु है .. उनकी
वजह से हमें
दो रोटी मिल
गई है..और
हम विश्वासघात करने
जा रहे हैं?
तो यह बड़े
लोग हमारे
जैसे लोगों पर
क्या भरोसा करेंगे
?"
और शाम के
समय, नशे में
चकनाचूर मन्नू ने
पंखुड़ी के साथ मार
पीट की और
जिद करके अकेले
साइकिल पर गाँव
जाने के
लिए रवाना हो
गया। पंखुड़ी
रोती हुई उसे रोकती
रही फिर भी
वो चला गया
।
सरकारी लोकडाउन हट
गया ... जन
जीवन धीरे-धीरे
सामान्य होने लगा। पंखुड़ी
और उसकी
बेटी फिर से
सोसायटी में लोगों
के घरो में
काम करने जाने
लगे .लेकिन ... पंखुड़ी
के हाथ सूने थे ... मन्नू की जिद की "पीड़ा" कभी भी भुला ना सके ऐसी थी ।
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